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Category: कविता

परिवर्तन…

परिवर्तन…

समय के 
साथ-साथ
लोग बदलते हैं 
और 
आगे बढ़ जाते हैं…

आँगन में लेटकर 
तारे गिनते गिनते… 
जाने कब 
तारे 
आँचल में 
सिमट आते हैं…
हवा में बिखरे
महकते एहसास 
दिल से 
जुड़ जाते हैं…
आँखों में पलते सपने 
हक़ीकत बन जाते हैं…
और अरमानों के क़फिले 
दर ब दर 
गुज़रते जाते हैं… 

धीरे धीरे
दिल की बातें 
जो पहले 
पहुँचती थीं 
सीधे दिल तक
अब नहीं पहुँचतीं… 
अब इस रास्ते से 
दिल की नहीं 
दिमाग़ की, 
तर्कों की, 
कसौटी पर कसी
बातें आती हैं… 

धीरे धीरे
समय बदलता है
सोच बदलती है
परिस्थिति बदलती है
प्रकृति बदलती है
विचार बदलते हैं
सबक़ भी बदल जाते है
समस्याएँ बदलती हैं
समाधान भी बदलते हैं
सूरज के निकलने का 
ढलने का समय भी बदलता है

परिवर्तन…

नियम है जीवन का
और इस नियम के साथ ही
वरीयताएँ भी बदल जाती हैं
कोण-दृष्टिकोण बदलते हैं 
नज़रिये भी बदलते हैं
सुविधा के अनुसार 
पसंद नापसंद भी बदलती है
किनारे वहीं रह जाते हैं 
बस बहाव बदल जाता है
रूख बदल जाता है
तारे भी वहीं नहीं रहते 
वो भी जगह बदलते हैं

कुछ सवालों के जवाब 
बहुत ढूंढने पर भी नहीं मिलते, 
क्योंकि 
उन सवालों के जवाब 
ज़िन्दगी को जी कर ही मिल पाते हैं… 
प्रार्थना गीत

प्रार्थना गीत

प्रार्थना गीत
जिसमें ख़ुशबू है
मेरे आँगन के फूलों की 
और है
गगन का विस्तार 
ऊर्जा है…
तपन है…
सूर्य की गर्मी की
धरती का 
गहन सौन्दर्य है
सागर की पवित्रता है…
और है 
प्रेम…
जो फैला है 
इंद्रधनुष सा…
सतरंगी सपनों सा…
यहाँ वहाँ…
इधर उधर…
क्षितिज तक…
यही गीत है
प्रार्थना है… 
तुम जियो हज़ारों साल...
साल के दिन हों पचास हज़ार...
फासले…

फासले…

फासले बस… 
होते ही हैं फासले
क्योंकि…
बड़े दिलचस्प होते हैं ये फासले …

कभी पास रह कर भी 
हो जाते हैं ये फासले
और कभी रहो कितने भी दूर 
फिर भी… 
बीच में कहां आ पाते हैं 
ये फासले…

कभी सोच में भी आ जाते हैं 
ये फासले
दरिया से फैलते 
राहों से बढ़ते, पसरते 
कभी मंजिलों पर खड़े मिल जाते यूँ ही 
ये फासले…

कभी आसमान सी बुलन्दी लिये 
ये फासले 
कभी सदियों तक फिसलते 
पलकों पर ठिठकते रूकते
और कभी यूँ ही पलों में ढल जाते हैं
ये फासले...

रिसते सिसकते फासले 
संगींन हैं ये फासले…
क्योंकि…
बड़े ही दिलचस्प होते हैं 
ये फासले …

कभी बढ़ते, कभी सिमटते फासले
कभी मिटाये ना मिटते फासले
कभी काटो ना कटते फासले
कभी ख़ुद के बनाये फासले
कभी खुद ब ख़ुद ही बन जाते हैं 
ये फासले…

क्योंकि… 
फासले बस होते ही हैं फासले…
बड़े दिलचस्प होते हैं ये फासले…

लेकिन...
चाहो तो बस… 
मोम से ही होते हैं ये फासले
पहल करते ही पिघलते फासले
अब इतने भी बड़े नहीं होते हैं ये फासले… 
और इतनी दूर भी नहीं होते हैं फासले...

क्योंकि… 
फासले बस होते ही हैं फासले…
बड़े दिलचस्प होते हैं ये फासले…
कविता…

कविता…

कविता
क्या है?
कम शब्दों में
ज़्यादा बातें...

कुछ कही
कुछ अनकही सी...
कुछ सुनी
कुछ अनसुनी सी...

अव्यक्त...
अभिव्यक्ति सी…
जितनी समझी
अच्छी लगी…

बाक़ी मेरी नासमझी सी
बस
समझ लो कि
उतनी ही बातें कहीं मैंने...

कि जितनी 
तुमने समझीं…
बस…शब्दों का तालमेल 
और

कविता
बस
कविता
ही…रही…
क्योंकि… जज़बात…

क्योंकि… जज़बात…

क्योंकि…
जज़बात बहुत ज़हीन होते हैं 
अक़्ल और अदब की तरह 
इस्तेमाल करो रस्मों की तरह 
और सम्भालो अपने पास धरोहर की तरह…


क्योंकि…
जज़बात बहुत ख़ास होते हैं 
जान और माल की तरह 
पालो उन्हें शौक़ की तरह
और जियो तहज़ीब की तरह… 


क्योंकि… 
जज़बात बहुत अज़ीज़ होते है 
अपनों की तरह 
रखो पास अमानत की तरह
और बाँटते रहो सौग़ात की तरह…


क्योंकि… 
जज़बात बहुत ही हसीन होते हैं 
क़ायनात की तरह, 
महसूस करो और
जियो उन्हें ज़िन्दगी की तरह… 


क्योंकि… 
जज़बात हक़ीक़त में होते हैं 
आइने की तरह 
तसलीम करो 
उनकी इबादत की तरह… 


क्योंकि… 
जज़बात में दर्द बहुत अपने होते हैं 
ख़ुद की तरह
खुशियाँ उन्ही का हाथ थाम 
सीढ़ियाँ चढ़ती हैं बच्चों की तरह…
कुछ लोग ज़िन्दगी में…

कुछ लोग ज़िन्दगी में…

कुछ लोग ज़िन्दगी में
आते हैं 
कहानी क़िस्सों की तरह
और बीत जाते हैं
त्यौहार की तरह…

कुछ लोग…
चलते हैं साथ 
खुशबू की तरह
और बस जाते हैं
यादों में गुलदस्तों की तरह…

कुछ लोग…
चलते हैं मिला कर
क़दम से क़दम 
और बस जाते हैं 
यादों में अपनों की तरह…

और कुछ… 
आते हैं… 
बहते हैं, डूबते, उतरते हैं
और रह जाते हैं
हमेशा के लिए साथ किनारों की तरह…

कुछ लोग…
पगडंडियों से गुजरते 
खिलते हैं, महकते हैं 
और भर जाते हैं
दिल को फुलवारी की तरह…

पर 
कुछ लोग…
इस पार से उस पार तक
आते हैं, जाते हैं
और बनाये रखते हैं भरम 
धरती पर आसमान की तरह…
रफ़ूगिरी…

रफ़ूगिरी…

वो ज़िन्दगी भी क्या 
जो रफ़ू न की जा सके… 

वो भाव भी क्या 
जो पैबन्द से ना सज सकें..

यही तो हुनर है 
जो क़दम दर क़दम सीखते हैं..

यही तो करिश्में हैं
जो गाहे बेगाहे करते हैं…

गर रफ़ूगिरी ना आती तो 
सकून कहाँ से आता...

गर पैबंद ना होते तो 
दामन भी इतने पाक ना होते...

कभी भी…
कहीं भी…
प्रेम सन्यास भी है…

प्रेम सन्यास भी है…

सुन, समझ और मान भी ले
आज मैंने तुझे 
अपना अंतिम पाठ भी 
दिया पढ़ा…
इस स्पर्श की रिक्तता 
मन की गहरी सिक्तता
तन की सारी वितृष्णा
नयनों की आर्द्रता
इस धरती का प्रस्तर मन
आकाश का विस्तार
वायु का प्रवाह
इस जीवन का उत्कर्ष 
और उसमें 
पठारों और मरुस्थलों के साये 
जब जब पनपते हैं… 
तब भी हम 
वह नहीं जान पाते हैं
जो मैंने तुझे आज समझाया है..
मैंने ही तुझे प्रेम, स्नेह, 
आस्था और विश्वास के धागे दिए 

चल 
आज मैं तुझे सन्यास भी बताती हूँ 
जब मेरे इस शरीर से 
तेरा छूटेगा मोह 
और तू ही मुझे ले जाएगा 
बाहर इस देहरी से 
और छोड़ आयेगा 
हमेशा के लिए…
सुलगाकर 
इस तन के आकर्षण से निकल
मन में बसाएगा उस भाव को
जो शाश्वत है…
निरंतर है 
तब तू समझेगा कि 
प्रेम क्या है…
प्रेम सन्यास भी है…
प्रेम शाश्वत है…
‘प्रेम’ ‘प्रेम’ ही है…
मैं भविष्य हूं…

मैं भविष्य हूं…

अभी हाल ही में दिल्ली के एक चौराहे पर एक किशोर (वय लगभग चौदह वर्ष रही होगी) से बातचीत हुई जिसका निष्कर्ष कुछ इस प्रकार निकला…आप भी पढ़ें…कल के लिए इतनी निश्चिंतता और आत्मविश्वास तो मैने पढ़े लिखे युवाओं में भी नहीं पाया…सलाम उस उत्साह को…उम्मीद को…

मैं नंगा सोता हूं 
सड़कों पे 
और
छप्पन भोग होते रहते हैं 
मंदिरों में
गरीबी में 
सड़क पर पलते
मुझसे
दुलारों को 
ना भिक्षा मिली 
ना शिक्षा ही मिली

नंगे बदन 
नंगे पैर 
दोपहरी भर
काया को झुलसाकर
करतब दिखाकर
चन्द पैसे लेकर 
फुटपाथ पर आ बैठा
तो क़ानून आया
उसने मुझे हड़काया 
और लताड़ दिया
दो निवाले मिले नहीं 
खाने को
और जेब पर 
क़ानून बैठ गया 
फिर से खाली हाथ…

ना ना ना… 
दया नहीं… 
भिक्षा भी नहीं…
मेहनती हूं 
मेहनत करूंगा...
फिर से 
कुछ जुगाड़ करूंगा
दो दूनी चार करूंगा
जाते जाते 
इतना बता दूं 
हार नहीं मानूंगा… 
पेट भी भरूंगा 
अपना भी 
और क़ानून का भी… 
भले ही सड़क पर रहूं 
कारोबार करूंगा
पेट भी भरूंगा
तन भी ढकूंगा
अपना भी…
अपने से छोटों का भी…
फिर भी 
सरल रहूंगा…
उदार रहूंगा…
सहयोग भी करूंगा
और 
पर उपकार भी करूंगा…

क्योंकि…
मैं दर्द में रोता नहीं
उपाय खोजता हूं…
मैं थक कर बैठता नहीं 
नयी राह ढूंढता हूं… 
मैं भारत का भविष्य हूं…
कल का सवेरा हूं...
चांद सूरज को दिशा ‘मैं’ दूंगा…
काल के कपाल पर
‘मैं’ ही लिखूंगा…
‘मैं’ ही हूं इसका 
भाग्य विधाता...
कितने सभ्य हैं…

कितने सभ्य हैं…

एक तरफ जंगल
और दूसरी तरफ 
मैदान घास के
तरतीब और बेतरतीब 
दोनों का आकर्षण
है घना... 

पनपने दो जंगलों को
ख़ुद में
और फिर उनमें से 
गुजर कर जब पहुंचोगे
पार
तो तब लगेगा 
कि
ख़ुद को जीत लिया…

हम
सभ्यता को बिछाकर 
मानवता को ओढ़ लेते हैं…
और सुसंस्कृत होने का 
भाव रखते हैं…
पर कभी भी 
ये नहीं सोचते हैं 
कि 
सभ्यता और मानवता पर कितने भारी पड़ते हैं…

कितने सभ्य हैं 
और 
कितने मानवीय हैं...?
आवरणों में पनपकर 
संस्कृति को आगे 
ले जाने की बात करते हैं…

ना तो सभ्य ही हो पाते हैं 
ना ही मानवीय हो पाते हैं
और संस्कृति….
उसे तो कहीं पीछे ही छोड़ आते हैं…
और मुखौटा चढ़ाकर 
ढ़ोंग रचते हैं 
सभ्य होने का…


पहले सभ्य तो बनें…
खुशी से मानवता को 
लेकर चलें 
तभी तो संस्कृति से जुड़ पाएगें
सांस्कृतिक हो पाएगें….